8 मार्च 2015

ये लंका के लोग !

सोचा ,लिखा ,कागज को बुरा लगा /
क्यूँ उसके ऊपर रोज़ ,कलम चलाता हूँ ,
सोच सोच कर ,लिख लिख कर ,
क्या कभी कुछ ,परिवर्तन हो पाया है ?
ये सोये हुए लोग ,
समृधि के कोहरे में /
लंका की प्रजा की तरह ,
पूजा पाठ में लगे हैं ,या फिर ,
सुरबालाओं और सूरा की मधुशाला के ,
नृत्य व संगीत में ,कहीं खो गए हैं /

3 टिप्‍पणियां:

Isha ने कहा…

परिवर्तन तो होना ही है.....ये प्रकृति का नियम जो है......
ये वक़्त न ठहरा है ,ये वक़्त न ठहरेगा....
वो सुबह कभी तो आएगी.........

Unknown ने कहा…

sach kaha...

World View of Prabhat Roy ने कहा…

प्रिय साथी नीरज त्यागी
यकीनन आपने अत्यंत दिल ओ दिमाग को स्पर्श करने वाली कविता लिख डाली है. साधुवाद और शुभकामना
प्रभात

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