16 जन॰ 2012

ओ जेहादी !

जा जय घोष कर !
उन्मादी बन जा ,
भूल जा !
जिसे तू मार रहा है ,
वो मर कर भी ना मरा,
तेरे खुदा का नूर था वो ,
उसकी मुहब्बत से
भरपूर था वो /
तेरे जिहाद ने ,
उसे भी ना छोड़ा /
क्यूंकि ये जिहाद ,
खुदा के लिए नहीं ,
खुदा के नूर के लिए नहीं ,
सुव्यवस्था  के कफ़न के लिए है ,

कुछ राक्षसों के 
दम्भी अट्टहास के लिए है , 
जोड़ने के लिए नहीं ,
तोड़ने के लिए है /

ख़ुदा के नाम पर 
लगा रहे हैं   कलंक 
सत्तासीन राक्षस 
बाज नहीं आएंगे 
फैलाते रहेंगे 
बस ये  आतंक / 

पीहू पीहू में सच है कुछ !

पशु पक्षी अनपढ़ होते हैं ,
फिर भी संवादी होते हैं /
प्रातः काल वो कूक अनूठी ,
मैना फिर तोते से रूठी /

हमने शब्द गढ़े दर पीढी
भाषा उनकी मौन भाव की /
बुलबुल मिश्री प्रेम भाव की ,/

बड़े बड़े ग्रंथों से भी हम
प्रेम भाव को जता न पाए ,
कहाँ कौन वो पूर्ण प्रेम है ,
शब्दों से फिर बता न पाए /

शब्द बने आडम्बर अब ,
बाहर कुछ है अन्दर कुछ ,
सच्चे तो ये पक्षी ही हैं ,
पीहू पीहू में सच है कुछ //

प्रेम का मौन !

मनुष्य के उस पार ,
मानवीय मस्तिष्क के पार ,
कुछ है ,जो समझ से परे है /
जो देखा वो माना !
जो सुना ,वो विश्वास किया ,
जो न जाना ,तर्क से परखा ,
जिसकी कोई सीमा नहीं ,
पुस्तकों शास्त्रों में बंद वो ,
मानवीय प्रेरणा ,निशब्द /
बुद्ध के मौन में मिला ,
शांत सब कुछ !
विस्फोट असीमित शक्ति सा ,
अनवरत तरंग सा ,
स्वयं को प्रकाशित करता /
में हूँ में हूँ का नाद करता ,
सब प्रश्नों को व्यर्थ करता ,
शांत सब कुछ ,भाव में वो
प्रेम के मौन में मिलता !

ओ प्रकृति !

इधर उधर छटा सी बिखरी ,
गर्जन तर्जन ,
बादलों सी बिखरी ,
पर्वत सागर ,
वृक्षों के झुण्ड से ,
इधर उधर चंचल से ,
जीव जंतु ,
पानी या थल के ,
हरियाली या मरुथल ,
बिखरी इधर उधर ,
देख वो अमराई सी ,
प्रकृति ,
ओ प्रकृति !

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